Woh Shahar !!!
वो शहर न जाने कैसे आबाद था
बेरुखी सी ज़िन्दगी बाहें फैलाए सपाट था,
कहीं शिकायतें थी तो कहीं मौनव्रत
बाजुएँ बर्फ में जमी जैसे शिथिल
फिर भी आशाओं में टकराव था
वो शहर न जाने कैसे आबाद था।
कहीं धुएँ में डूबी जैसी सफ़ेद चादर
तो कहीं सूखे से त्रस्त गांव
रुकी हुई ज़िन्दगी के आँगन में,
ना बारिश हैं न काग़ज़ के नाव
ऐसे निर्मम बेला में मचा है त्राहिमाम
मानसिक स्थिति तो कहीं फांसी में लटका था ,
वो शहर न जाने कैसे आबाद था।
ना सड़के बनती वहां ना आता पेयजल,
लोग कहते ये राजनितिक रंजिश का है फल
आम इंसान की संपूर्ण ताकत एवं धैर्य
जैसे बीच में ही हो जाता निष्फल
सूरज की तपिश से बचा सिर्फ फ़सलों का कंकाल था।
वो शहर न जाने कैसे आबाद था।
केवल तू तू मैं मैं में कोई हो जाता घायल,
घृणा, हिंसा, लोभ के हो गए कायल,
पल भर में ही शांत हो जाती
किसी कोने में किसी अपने की गूँज
उस घडी में यह सबका इम्तेहान था
वो शहर न जाने कैसे आबाद था।
घोसलों से कई गुना ऊपर उनका मकान था,
वहां चौंधियाती रौशनी, पर कहीं पे घोर अँधेरा था ,
हास्य बन गया है ऐसे मानवता के मकान
जहाँ न प्यार का समागम और ना ही अनुभव था।
बुझी हुई इंसानियत की लौ का यह आखिरी निवेश था
वो शहर न जाने कैसे आबाद था।
इति
राजेश बनर्जी
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