Manav Prakriti !!


रेत के ज़र्रों से मंद मंद
  एक लम्बा सा कारवां लिए ,
एक गांव से दूसरे गांव
  नई आशा की दीप लिए  
न जाने राही  क्यों चकित हैं सारे 
 ऐ मानव ! तुम तो हो ही बंजारे 


अन्न के दो टुकड़े सूक्ष्म-सूक्ष्म 
 भूख की शांति के लिए ,
एक शहर से दूसरे शहर
  नई ज़िन्दगी की कामना के लिए 
न जाने राही  क्यों हैरान  हैं सारे
 ऐ मानव ! तुम तो हो ही बंजारे


परिवर्तन के घोसले में तिनका-तिनका
नई ख़ुशी के जन्म के लिए
एक आँगन से दूसरे आँगन
 व्याह के बंधन में बंधने के लिये
न जाने राही  क्यों परेशां  हैं सारे
 ऐ मानव ! तुम तो हो ही बंजारे


काष्ठ सी हथेली पर तप-तप
 मानव आग का गोला लिये ,
इस धरती से उस ग्रह  तक
नई खोज की तपिश लिये ,
न जाने राही  क्यों उन्मुक्त  हैं सारे
 ऐ मानव ! तुम तो हो ही बंजारे


शीत लहर सी हवाओँ में थर थर
उत्तरी ध्रुव के किसी सुदूर प्रांत के लिए,
इस सागर से उस महासागर पार
 नई सभ्यता  की तलाश के लिए,
न जाने राही क्यों विस्तृत हैं सारे
 ऐ मानव ! तुम तो हो ही बंजारे 

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