एक जांबाज़



वो गहरे धीमे से अल्फाज़,
जिसने किया था आग़ाज़
उस स्वर्णिम मिलन का
जिसके समक्ष था एक जांबाज़ !!

फूलों के सेज सा था उसका घर
मगर जंगलों में फिरता था दर बदर
उसके आशाओं पर थी ज़ंजीरे
न जाने क्यूँ दुखी था इस कदर !!

सिर्फ सोचता था क्यूँ मैं बदनसीब
क्यूँ चलती नहीं मेरी तरक़ीब
रास्ता ही चाहिए था उसे
पर किस्मत से था ग़रीब !!

वो अल्फाज़ उसे विचलित कर गया
अब वो सोचने लगा कुछ नया
अपने आने वाले परिवर्तन का
आँखों से करने लगा बयां !!

जन समागम थे हैरान
वो जांबाज़ अब भरने लगा उड़ान
रातों की नींद और दिन का चैन
की धज्जियाँ उड़ा, नहीं थी उसे कोई थकान !!

आगे मुश्किलों का किया सामना
और भगवान से की कामना
रोकना नहीं उस स्वर्णिम मिलन से पहले
चाहें जितनी भी हो प्रतारणा !!

अब हर कोने से आई आवाज़,
हाँ मैं ही हूँ वो जांबाज़
केवल विचलित मन को करले वश
एक तू ही है वो कलाबाज़ !! (C)

Till we become Hero
-Rajesh Banerjee

(Dedicated to all those who think they are hapless, everything has ended for them, always remember
opportunities are like whispers, you could only get them when you pay attention. Adversities are
testimonials of how bravely we can fight with them).

























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