एक भीनी शाम २ Ek Bheeni Shaam 2
जब बारिश ने दी आँखें खोलने की इज़ाज़त
तब थी फ़िक्र जूते और लिबास की हिफाज़त
उस छतरी के मालिक का मुझे इल्म न था
क्यूंकि छतरी और मेरे दरमियाँ कोई और नहीं था
शाम की वो बारिश रुकने को राज़ी नहीं थी,
मेज़बान की महफ़िल कहीं बिखरी पड़ी थी
अब आलम यूँ हुआ कि न ही महफ़िल सजा
और न ही मिले जाम पे थिरकता मजमा
मंज़र कुछ ऐसा था, कहीं जूते कीचड़ में दम तोड़े
तो कहीं आधा भरा जाम ले हिचकोले
सारी उम्मीद छोड़ मैं चला अपनी गाड़ी की ओर
हर पल दहला रहा था बादलों का शोर
शायद वो शाम अगर अम्मी की बात मानी होती
न यह हश्र होता और न ही किस्मत रोती
आज भी उस भीनी शाम के झलके आंसू याद है
मगर मेरे मन की मलिका के लिए मौला से फरियाद है,
किसी शाम ऐसे ही उसे बेवक्त भेज देना
सिर्फ ये इंतेज़ा है फिर से बारिश न करवा देना (c)
राजेश
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