एक भीनी शाम ! Ek Bheeni Shaam... Part 1



एक भीनी सी शाम के महफ़िल का मंज़र था
मैं, मेरा वक़्त और मेरा लिबास साथ था
सब की पैनी नज़र मुझ पे थी पर
मेज़बान की तीर ऐ नज़र मेरे नवाबी जूतों पर !

इत्र की खुशबू से महफ़िल मदहोश था
पर हमें भी अपनी उम्र का लिहाज़ था,
सारे ढलते हमउम्रों की नवाज़िश के बीच
एक मैं ही जवान मयस्सर था !

ढूँढती नज़र किसी को तलाश रही थी
पर अभी तक मुझे मेरी बेपाक किस्मत कोस रही थी
कोई तो हुस्न - ऐ - कूर होगी इस महफ़िल में
जिसे मेरी ज़रूरत होगी अपनी मंजिल में

मेरे ताबीर-ऐ- गुलशन में सिर्फ उसका ज़िक्र था
पर उसके न होने का फ़िक्र भी था
महज़ चन्द लम्हों में जाम के प्यालो का सिलसिला था
पर मेरे हाथ में उसके न होने का गिला नहीं था

आवाज़ पे थिरकती नज़र बादलों पे पड़ी
अचानक से मौसम कुछ नासाज़ हो पड़ा
बारिश की बूंदों ने बेइंतेहा बरसना मुनासिब समझा
और आगरा के नवाबी जूतों का हाल बेहाल हो पड़ा

उस खुले से बाग़ में कोई पासबाँ न था
पर मेरे रुखसत का वो वक़्त भी नहीं था
न जाने सर पे वो छतरी किसने लहराई
मुसलसल तेज़ बारिश में यह आँखें नहीं देख पाई ...

to be continued....

जब तक जूते सलामत रहे
राजेश




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