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एक भीनी शाम २ Ek Bheeni Shaam 2

जब बारिश ने दी आँखें खोलने की इज़ाज़त तब थी फ़िक्र जूते और लिबास की हिफाज़त उस छतरी के मालिक का मुझे इल्म न था  क्यूंकि छतरी और मेरे दरमियाँ कोई और  नहीं था  शाम की वो बारिश रुकने को राज़ी नहीं  थी, मेज़बान की महफ़िल कहीं बिखरी पड़ी थी अब आलम यूँ हुआ कि न ही महफ़िल सजा और न ही मिले जाम पे थिरकता मजमा मंज़र  कुछ ऐसा था, कहीं जूते कीचड़ में दम तोड़े तो कहीं आधा भरा जाम ले हिचकोले सारी उम्मीद छोड़ मैं चला अपनी गाड़ी की ओर हर पल दहला रहा था बादलों का शोर  शायद वो शाम अगर अम्मी की बात मानी होती  न यह हश्र होता और न ही किस्मत रोती  आज भी उस भीनी शाम के झलके आंसू याद है मगर मेरे मन की मलिका के लिए मौला से फरियाद है, किसी शाम ऐसे ही उसे बेवक्त  भेज देना सिर्फ ये इंतेज़ा है फिर से बारिश न करवा देना (c) राजेश 

एक भीनी शाम ! Ek Bheeni Shaam... Part 1

एक भीनी सी शाम के महफ़िल का मंज़र था मैं, मेरा वक़्त और मेरा लिबास साथ था सब की पैनी नज़र मुझ पे थी पर मेज़बान की तीर ऐ नज़र मेरे नवाबी जूतों पर ! इत्र की खुशबू से महफ़िल मदहोश था पर हमें भी अपनी उम्र का लिहाज़ था, सारे ढलते हमउम्रों की नवाज़िश के बीच एक मैं ही जवान मयस्सर था ! ढूँढती नज़र किसी को तलाश रही थी पर अभी तक मुझे मेरी बेपाक किस्मत कोस रही थी कोई तो हुस्न - ऐ - कूर होगी इस महफ़िल में जिसे मेरी ज़रूरत होगी अपनी मंजिल में मेरे ताबीर-ऐ- गुलशन में सिर्फ उसका ज़िक्र था पर उसके न होने का फ़िक्र भी था महज़ चन्द लम्हों में जाम के प्यालो का सिलसिला था पर मेरे हाथ में उसके न होने का गिला नहीं था आवाज़ पे थिरकती नज़र बादलों पे पड़ी अचानक से मौसम कुछ नासाज़ हो पड़ा बारिश की बूंदों ने बेइंतेहा बरसना मुनासिब समझा और आगरा के नवाबी जूतों का हाल बेहाल हो पड़ा उस खुले से बाग़ में कोई पासबाँ न था पर मेरे रुखसत का वो वक़्त भी नहीं था न जाने सर पे वो छतरी किसने लहराई मुसलसल तेज़ बारिश में यह आँखें नहीं देख पाई ... to be continued.... जब तक जूते सलामत रहे राजेश